युगों युगों तक याद रहेंगे भारतेंदु हरिश्चंद्र।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
आधुनिक हिंदी साहित्य के ‘पितामह’ कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बहुत कम समय के जीवनकाल में साहित्य की कई विधाओं: कविता, ग़ज़ल, नाटक, निबंध, यात्रा वृत्तांत, कहानी, उपन्यास आदि में रचनाएं कर हिन्दी के उत्थान में उत्कृष्ट कार्य किया।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (जन्म 9 सितंबर 1850, मृत्यु 6 जनवरी 1885) एक कवि, लेखक और नाटककार थे, जिन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य और रंगमंच का जनक माना जाता है. उन्होंने हिंदी में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया और तत्कालीन सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों पर लिखा. उन्होंने ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और ‘बाल बोधिनी’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया और एक पत्रकार के रूप में भी कार्य किया. उनके विशाल साहित्यिक योगदान के कारण उनके काल (1857-1900) को ‘भारतेन्दु युग’ के नाम से जाना जाता है.
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
जन्म:
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को वाराणसी (काशी) के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था.
पिता:
उनके पिता गोपालचंद्र भी एक प्रसिद्ध कवि थे, जो ‘गिरधरदास’ उपनाम से कविता लिखते थे.
शिक्षा:
उन्होंने नियमित शिक्षा में रुचि कम होने के बावजूद, स्वाध्याय से संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली, उर्दू और गुजराती भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया.
साहित्यिक कार्य और प्रभाव
साहित्यिक विधाएं:
वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने गद्य, पद्य, नाटक, निबंध, कहानी, संपादन और पत्रकारिता में योगदान दिया.
हिंदी भाषा का विकास:
उन्होंने हिंदी भाषा को एक नया स्वरूप दिया और साहित्यिक जगत में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया.
पत्रकारिता:
उन्होंने ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ (बाद में ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’) और ‘बाल बोधिनी’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया, जिससे हिंदी गद्य के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ.
सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना:
उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से गरीबी, पराधीनता, ब्रिटिश अत्याचार और सामाजिक रूढ़ियों जैसे मुद्दों को उठाया और राष्ट्रीय चेतना का संचार किया.
नाटक:
हिंदी नाटकों को एक नया आयाम देने का श्रेय भी उन्हें जाता है, उन्होंने बाकायदा खड़ी बोली में नाटक लिखकर इस विधा को समृद्ध किया.
पुरस्कार और उपाधि
उनकी साहित्यिक सेवाओं और लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें ‘भारतेन्दु’ की उपाधि प्रदान की.
आर्थिक स्थिति और निधन
उन्होंने अपना सारा धन साहित्य और समाज सेवा में खर्च कर दिया, जिसके कारण जीवन के अंतिम दौर में उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा.
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का देहांत 6 जनवरी 1885 को हुआ था ।

रिपोर्ट मंडल ब्यूरो चीफ अयोध्या तेज बहादुर शर्मा।

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