**हर दीये में रौशनी नहीं, मेरे अरमान ठहरे**खरीद लो कुछ दीप मेरे, बस सौदा मत समझना इसे**इनसे ही तो जलती है, मेरे घर की भी दिवाली रे…!**आलेख बहुत संवेदनशील और ज़मीनी है इसमें कुम्हारों की व्यथा, आधुनिकता के प्रभाव और पारंपरिक कला के लुप्त होने की वास्तविक तस्वीर उभरती है।**… गुफरान खान रिपोर्ट एमडी न्यूज़ मैगलगंज**मैगलगंज खीरी* ! आधुनिकता की चकाचौंध में मिट्टी की सोंधी खुशबू जैसे मिटती जा रही है।मैगलगंज के कुम्हार आज भी अपनी पुश्तैनी कला को जीवित रखे हुए हैं मिट्टी के दीये, कुल्हड़ और हांडियाँ बनाकर वे अपनी परंपरा और संस्कृति की ज्योति जगाए हुए हैं।प्लास्टिक और फाइबर के दौर में भी इन कारीगरों की उम्मीद मिट्टी से जुड़ी है।हर दीया उनकी मेहनत, संघर्ष और आत्मसम्मान की कहानी कहता है।इस दीपावली, एक कुम्हार से दीया ज़रूर खरीदें क्योंकि जब उसका दिया जलता है, तो उसके घर की भी दिवाली रोशन होती है।*बनाकर दीये मिट्टी के जरा सी आस पाली है**मेरी मेहनत खरीदो लोगो मेरे घर भी दीवाली है**मैगलगंज दीपावली मिट्टीकेदीये कुम्हारकीविनती लोककला खीरीखबर*
