लापरवाही बरतने पर ग्राम प्रधानों, लेखपालों पर होगी कार्यवाही..उत्तर प्रदेश सहायक ब्यूरो प्रभारी विशाल गुप्ता लखनऊ । तालाबों, चरागाहों और अन्य सार्वजनिक उपयोगिता की सम्पत्तियों पर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण को समाप्त करने के उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण आदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूरे उत्तर प्रदेश में कड़ी कार्रवाई करने का निर्देश दिया है।इस आदेश में कहा गया है कि ग्राम सभा की भूमि पर अतिक्रमण की सूचना देने या उसे हटाने में प्रधानों, लेखपालों और राजस्व अधिकारियों की निर्षक्रयता आपराधिक विश्वासघात के समान है। न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरि की एकल पीठ ने अपने 24 पृष्ठ के आदेश में न केवल 90 दिनों के भीतर राज्य भर में सार्वजनिक भूमि या सार्वजनिक उपयोगिता के प्रयोजनों के लिए आरक्षित भूमि पर अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया है, बल्कि कानून के अनुसार कार्य करने में विफल जाय रहने वाले अधिकारियों के खिलाफ विभागीय और आपराधिक कार्यवाही करने करने का भी आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा कि प्रधान और लेखपाल सार्वजनिक सम्पत्ति के संरक्षक है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ‘तालाब (बाबली)’ या अन्य सावजनिक उपयोगिता वाली भूमि के रूप में दर्ज भूमि को उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 1947 की धारा 28-ए और 28-बी के तहत गठित भूमि प्रबंधक समिति द्वारा ट्रस्ट में रखा जाता है। इसमें कहा गया है कि उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 की धारा 67 को उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता नियम, 2016 के नियम 66 और 67 के साथ पढ़ा जाए तो ग्राम पंचायत की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने, उसके दुरुपयोग और गलत कब्जे से बचाने तथा बेदखली के बाद उस पर कब्जा बहाल करने का प्रावधान है।न्यायालय ने कहा कि अध्यक्ष के रूप में प्रधान और सचिव के रूप में लेखपाल कानूनी रूप से ऐसी सम्पत्ति की रक्षा करने और उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता नियम, 2016 के अनुसार किसी भी अतिक्रमण सूचना तुरंत तहसीलदार को देने के लिए बाध्य हैं। न्यायमूर्ति गिरि ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसा करने में उनकी विफलता महज प्रशासनिक चूक नहीं है, बल्कि यह सार्वजनिक भूमि पर अवैध कब्जे के लिए ‘षड्यंत्र और उकसावे’ के समान है। न्यायालय ने कहा, “यदि कोई सूचना नहीं दी जाती है या देरी से सूचना दी जाती है तो भूमि प्रबंधक समिति के अध्यक्ष अर्थात ग्राम प्रधान और सचिव अर्थात लेखपाल के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी क्योंकि वे सम्पत्ति के संरक्षक हैं।” न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि भूमि प्रबंधक समिति के अध्यक्ष होने के नाते ग्राम प्रधान को अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहने पर पंचायत राज अधिनियम की धारा 95(1) (जी) (iii) के तहत कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है।इस मामले में न्यायालय ने पाया कि मिर्जापुर के ग्रामीणों ने एक तालाब पर अतिक्रमण कर लिया था और उसे हटाने के लिए 2006 की धारा 67 के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई। उनकी निर्षक्रयता के बाद, याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया। ऐसे कृत्यों के पारिस्थितिक और संवैधानिक निहितार्थों पर प्रकाश डालते हुए कोर्ट ने कहा कि तालाबों, झीलों और अन्य प्राकृतिक जलाशयों जैसे जल निकायों पर अतिक्रमण से गंभीर पारिस्थितिक असंतुलन और पर्यावरणीय क्षरण होता है। ये जल निकाय भूजल स्तर को बनाए रखने, जैव विविधता को सहारा देने और एक स्थायी पारिस्थितिकी तंत्र सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं। निजी या व्यावसायिक उपयोग के लिए उन पर अवैध कब्जा या उनका रूपांतरण प्राकृतिक जल चक्र को बाधित करता है। भूजल में कमी, प्रदूषण और जलीय आवासों को नुकसान पहुंचाता है, जिससे जनता के स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार पर असर पड़ता है।न्यायालय ने आगे कहा कि इस तरह के कृत्य न केवल समुदाय के लिए कठिनाई और संकट का कारण बनते हैं, बल्कि अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के जीवन के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन करते हैं। इसके अलावा, पीठ ने कहा कि इस तरह के अतिक्रमण अनुच्छेद 14 के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं क्योंकि वे सामान्य उपयोग के लिए प्राकृतिक संसाधनों के प्रशासन में मनमानी पैदा करते हैं। कड़े शब्दों में पीठ ने याद दिलायाः “जल ही जीवन है” अर्थात “जल ही जीवन है”, इस प्रकार जल के बिना पृथ्वी पर किसी भी प्राणी के जीवन का अस्तित्व नहीं है, इसलिए इसे किसी भी हालत में बचाया जाना चाहिए”। तदनुसार, न्यायालय ने माना कि जलाशयों पर किसी भी प्रकार का अतिक्रमण स्वीकार्य नहीं है तथा इसे “भारी जुर्माना, लागत और दंड के साथ यथाशीघ” हटाया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

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