उत्तर प्रदेश पत्रकारिता प्रभारी जे पी सिंह की रिपोर्ट

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एम डी न्यूज़ अलीगढ

“लोकतंत्र में ‘वोटर लिस्ट’ नागरिकों की पहचान है; BLOs की लाशें ‘चुनाव आयोग’ के माथे पर लगा प्रश्नचिह्न!”

उत्तरी भारत की तीखी कहावत “गरीब की मेहरारू गांव भरे की भौज़ाई”—आज भारतीय चुनावी तंत्र में ब्लॉक लेवल ऑफिसर (BLO) की मर्मस्पर्शी स्थिति का आईना है। प्रतिष्ठित समाचार पत्रों की रिपोर्ट है कि गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया (SIR/SSR) की हड़बड़ी में 19 दिनों के भीतर 6 राज्यों में 15 BLOs की जान चली गई। यह संख्या सामान्य प्रशासनिक तनाव की नहीं, बल्कि राज्य द्वारा थोपे गए ज़ुल्म और अमानवीय दबाव का प्रमाण है। यह त्रासदी केवल एक प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और संवैधानिक संकट है, जिस पर चुनाव आयोग की निष्क्रियता आग में घी डालने का काम कर रही है।

  1. सामाजिक और मनोवैज्ञानिक घात: ‘बलि का बकरा’ कौन?

BLO पद 2006 में अस्तित्व में आया, लेकिन आज तक कभी इतनी बड़ी संख्या में कर्मचारियों की मौत नहीं हुई। SIR/SSR की वर्तमान प्रक्रिया ने एक मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ रखा है, जिसमें छोटे कर्मचारी — शिक्षक, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता — बलि का बकरा बन गए हैं।

  • अमानवीय दबाव: SIR/SSR कार्य के लिए असमान और अवास्तविक टाइमलाइन थोपी गई है। जिन राज्यों में चुनाव 2027 में होने हैं, वहाँ भी 2024 में चुनाव होने वाले राज्यों जैसी ही डेडलाइन है। यह दिखाता है कि चुनाव सुधार का उद्देश्य नहीं, बल्कि प्रशासनिक हठधर्मिता सर्वोपरि है।
  • तनाव और आत्महत्या: देर रात तक काम करने का तनाव, अधिकारियों के ताने और अमानवीय समय सीमा के कारण हार्ट अटैक और आत्महत्या जैसी घटनाएँ हो रही हैं। यह प्रशासनिक मानवता की पूर्ण विफलता है। यह प्रक्रिया ‘पवित्र’ मतदाता सूची बनाने के लिए नहीं, बल्कि BLO जैसे छोटे कर्मचारियों पर थोपे गए ज़ुल्म का पर्यायवाची बन गई है।
  • सामाजिक विभाजन: ‘जीविका दीदी’ जैसी योजनाओं की लाभार्थी महिलाओं को BLO की जिम्मेदारी सौंपना एक गंभीर नैतिक अपराध है। जिन्हें अभी-अभी सरकार से आर्थिक लाभ मिला है, उन्हें तुरंत चुनावी ड्यूटी पर लगाकर ‘एहसान उतारने’ का मौका देना, सरकारी लाभ को चुनावी पक्षपात में बदलना है।
  1. संवैधानिक एवं विधिक अतिक्रमण: आयोग की संदिग्ध निष्पक्षता

भारत का संविधान चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का आदेश देता है। इसका अर्थ है ‘लेवल प्लेइंग फ़ील्ड’ (Level Playing Field) सुनिश्चित करना, न कि सत्ता पक्ष को लाभ पहुँचाना।

  • चुनावी समय का संदिग्ध चयन: बिहार चुनाव का छठ पूजा के ठीक बाद कराया जाना — जब प्रवासी मजदूरों का दो बार घर आना आर्थिक रूप से असंभव हो जाता है — यह आयोग की निष्क्रियता नहीं, बल्कि जानबूझकर की गई अनदेखी प्रतीत होती है।
  • सरकारी योजनाओं पर निष्क्रियता: आंध्र प्रदेश (2019) और तमिलनाडु (2011, 2016, 2021) में आयोग ने चुनाव घोषित होने के बाद लाभकारी योजनाओं की नई किश्त जारी करने पर रोक लगाई थी।
    • बिहार में जीविका दीदियों के खाते में 10-10 हजार रुपए चुनाव तिथि की घोषणा से ठीक पहले डाले गए। आयोग ने इस पर कोई रोक नहीं लगाई और न ही इस पर कोई कार्रवाई की, जबकि रैलियों में खुलेआम कहा गया कि शेष राशि सत्ता में वापसी पर दी जाएगी। यह पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के स्वीकारोक्ति (गर्मी में लोकसभा चुनाव न कराने की) के विपरीत, चुनावी समय और लाभकारी योजनाओं पर आयोग की न्यायिक निष्क्रियता का सबसे बड़ा उदाहरण है।
  • SIR प्रक्रिया में विधिक भ्रम: इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि SIR प्रक्रिया को ‘नागरिकता परीक्षण’ के रूप में पेश किया जा रहा है। चुनाव आयोग को नागरिकता तय करने का कोई अधिकार नहीं है। मतदाता सूची काटना केवल मताधिकार का निलंबन है, नागरिकता का हनन नहीं। यह कानूनी अधिकार क्षेत्र का घोर अतिक्रमण है और विधिक जालसाजी से कम नहीं।
  1. राजनीतिक और कूटनीतिक जोखिम: लोकतंत्र पर हमला

यह पूरा प्रकरण देश के लोकतंत्र की विश्वसनीयता को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कमजोर करता है।

  • वोटर लिस्ट का राजनीतिकरण: यदि SIR का लक्ष्य शुद्धीकरण होता, तो यह लोकसभा चुनाव से पहले किया जाता। विधानसभा चुनावों से महीनों पहले, BLO की जान की कीमत पर इसे हड़बड़ी में कराना, यह संदेह पैदा करता है कि इसका लक्ष्य ‘शुद्धीकरण’ नहीं, बल्कि राजनीतिक लाभ के लिए मतदाता सूची का ‘पुनर्गठन’ है।
  • प्रवासी मजदूरों का बहिष्करण: बिहार जैसे राज्य के प्रवासी मजदूरों को चुनावी प्रक्रिया से अप्रत्यक्ष रूप से दूर रखना, लोकतंत्र के समावेशी सिद्धांत पर सीधा हमला है। यह वर्ग विशेष को मतदान से वंचित करने की एक राजनीतिक चाल हो सकती है।
  • तानाशाही का संकेत: जब चुनावी संस्था, जिसका काम सत्ता के पहरे को हटाना है, स्वयं सत्ता के पक्ष में निष्क्रियता या सक्रिय पक्षपात दिखाती है, तो यह नियंत्रित प्रजातंत्र (Authoritarian Governance) की ओर बढ़ने का स्पष्ट संकेत है।

चुनाव आयोग को यह समझना होगा कि उसका काम केवल सूची बनाना नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करना भी है। यदि BLO की जान की कीमत पर ‘पवित्र’ सूची बनती है, तो वह सूची पवित्र नहीं, रक्त रंजित होगी। आयोग को तत्काल इस अमानवीय टाइमलाइन को रद्द करना चाहिए, मृतक BLOs के परिवारों को न्याय सुनिश्चित करना चाहिए, और अपनी निष्पक्षता को सिद्ध करने के लिए सत्ता पक्ष को लाभ पहुँचाने वाले सभी संदिग्ध निर्णयों पर पुनरावलोकन करना चाहिए।

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