उत्तर प्रदेश पत्रकारिता प्रभारी
संवाददाता जे पी सिंह की रिपोर्ट
बहुआयामी समाचार
एम डी न्यूज़ अलीगढ
भारत में एक ‘सोशल क्रेडिट सिस्टम’ (SCS) का नाम नहीं लिया जा रहा है, पर इसकी आत्मा को देश की डिजिटल पहचान प्रणाली में चुपचाप प्रवेश दिलाया जा रहा है। सारांश पुनरीक्षण (SIR) की आक्रामक प्रक्रिया और आगामी डिजिटल जनगणना, आधार (Aadhaar) की नींव पर खड़े होकर, चीन जैसे केंद्रीकृत ‘डिजिटल निगरानी राज्य’ (Digital Surveillance State) के लिए आवश्यक डेटा और तकनीकी आधार तैयार कर रहे हैं। यह सिर्फ प्रशासनिक दक्षता का मामला नहीं है; यह नागरिकों की निजता, गरिमा और मौलिक स्वतंत्रता के साथ किया गया एक खतरनाक समझौता है।
- डेटा का विलय: एक केंद्रीकृत निगरानी तंत्र
भारत की यह संभावित निगरानी प्रणाली कई अलग-अलग डेटाबेस के विलय से शक्ति प्राप्त करती है:
- आधार-आधारित लिंकेज: आधार, जो बैंक खातों, पैन कार्ड, और कल्याणकारी योजनाओं की जीवनरेखा है, अब मतदाता पहचान पत्र से जोड़ा जा रहा है। यह लिंकेज नागरिकों की राजनीतिक पहचान को उनकी वित्तीय और सामाजिक पहचान से बांध रहा है।
- SIR की आक्रामकता: “SIR, केवल मतदाता सूची शुद्ध नहीं कर रहा, वह नागरिक डेटा को सख़्त प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन ला रहा है।” 2003 की मतदाता सूची से गायब परिवारों के नाम पर कानूनी जाँच का प्रावधान, यह सुनिश्चित करता है कि चुनावी डेटा को कानूनी अनुपालन की निगरानी के लिए एक प्रशासनिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाए।
- डिजिटल जनगणना का ख़तरा: आगामी डिजिटल जनगणना, जीपीएस निर्देशांक और विस्तृत सामाजिक-आर्थिक विवरणों को एकत्र करके, हर नागरिक की एक अभूतपूर्व रूप से विस्तृत ‘प्रोफ़ाइल’ तैयार करेगी। यह डेटा की गहराई, चीन के SCS के लिए आवश्यक कच्चा माल है।
- डिजिटल बहिष्करण: गरिमा का उल्लंघन
भारतीय प्रणाली का सबसे बड़ा ख़तरा ‘सेवाओं से वंचित करने’ (Denial of Services) के रूप में सामने आता है, जो लाखों गरीबों के लिए मौत और जीवन का प्रश्न बन सकता है:
- तकनीकी विफलता का हथियार: “तकनीकी त्रुटि अब केवल एक गलती नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों से वंचित करने का सबसे तेज़ सरकारी हथियार बन सकती है।” आधार की प्रमाणीकरण विफलता या डेटा में मामूली त्रुटि के कारण, गरीबों को राशन, पेंशन या मनरेगा भुगतान जैसी जीवन-निर्वाह की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित कर दिया जाता है। यह अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।
- अनिवार्य अनुपालन का दबाव: सरकार भविष्य में किसी भी नई योजना या सब्सिडी के लिए डेटाबेस को तत्काल अपडेट करने की शर्त लगा सकती है। यदि नागरिक समय पर अनुपालन नहीं करता, तो उसे सेवाओं से स्वचालित रूप से बाहर कर दिया जाएगा, जो प्रशासनिक दक्षता के नाम पर किया गया मानवीय अन्याय होगा।
- संवैधानिक मर्यादा पर सीधा प्रहार
यह प्रणाली संवैधानिक रूप से तभी उचित हो सकती है जब यह तीन-गुना परीक्षण (Three-Fold Test) पास करे—वैध उद्देश्य, आनुपातिकता, और कानूनी समर्थन। वर्तमान स्वरूप में, यह प्रणाली कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है:
- निजता का उल्लंघन (अनुच्छेद 21): नागरिकों के राजनीतिक और वित्तीय डेटा का समेकित एकत्रीकरण निजता के अधिकार पर अनावश्यक और असंगत दबाव डालता है। यह आनुपातिकता के सिद्धांत को विफल करता है।
- समानता का उल्लंघन (अनुच्छेद 14): डिजिटल बहिष्करण प्रणाली एक मनमानी और त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया है जो तकनीकी रूप से कम साक्षर, ग्रामीण या हाशिए के समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करती है, जिससे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है।
- स्वतंत्रता पर नियंत्रण (अनुच्छेद 19): यदि नागरिक को डर हो कि उसके ऑनलाइन या सामाजिक व्यवहार की निगरानी की जा रही है, और इसका परिणाम उसे आर्थिक लाभ से वंचित करना होगा, तो वह आत्म-सेंसरशिप करेगा—जो स्वतंत्र अभिव्यक्ति का गला घोंटता है।
- डेटा-आधारित तानाशाही का उदय
भले ही भारत चीन की तरह नागरिकों को ‘स्कोर’ न दे, लेकिन ‘डिजिटल बहिष्करण’ की यह प्रणाली परिणामों में SCS के समान कठोर हो सकती है। यह भारत के लोकतांत्रिक प्रतिरोध और न्यायिक हस्तक्षेप के कारण SCS से भिन्न है, लेकिन यह लोकतंत्र को एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहा है जहाँ नागरिक की गरिमा उसकी डिजिटल पहचान के अनुपालन पर निर्भर करेगी।
इस खतरे को रोकने के लिए, भारत को एक मज़बूत डेटा संरक्षण कानून को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी, जो सरकार द्वारा डेटा के अंतर-उपयोग को स्पष्ट रूप से सीमित करे। जब तक सरकार डेटा को अपनी शक्ति का स्रोत मानती रहेगी, नागरिक स्वतंत्रता और गरिमा हमेशा खतरे में रहेगी।

