संवाददाता जे पी सिंह
बहुआयामी समाचार
एम डी न्यूज़ अलीगढ
दिल्ली और उत्तर भारत की हवा में आज जहर नहीं, बल्कि सरकारों की बेशर्मी और जनता की लाचारी घुली हुई है। जब दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता से प्रदूषण पर सवाल होता है, तो उनका जवाब किसी गंभीर नीतिगत चर्चा के बजाय एक हास्यास्पद ‘टोना-टोटका’ जैसा प्रतीत होता है। कचरे के ढेर को “तुझे जाना पड़ेगा” कहकर भगाने की योजना उस वैज्ञानिक सोच का विस्तार है, जिसने कभी तालियां-थालियां बजाकर महामारी भगाने का स्वांग रचा था।
मुख्यमंत्री के बयान पर सोशल मीडिया का उपहास उड़ाना समझ से परे है। आखिर इसमें गलत क्या है? जब देश के शीर्ष नेतृत्व ने ‘गो कोरोना गो’ के नारों और कनस्तर पीटने को आपदा प्रबंधन मान लिया हो, तो एक मुख्यमंत्री अगर प्रदूषण को ‘डरा-धमकाकर’ भगाने की बात करती हैं, तो वे केवल अपने ‘रोल मॉडल’ के पदचिन्हों पर चल रही हैं। इसे ट्रोलिंग नहीं, बल्कि उस ‘एक्स्ट्रा 2ab’ वाली वैज्ञानिक दृष्टि का सम्मान मिलना चाहिए जिसे सत्ता ने हमें पिछले एक दशक में सिखाया है।
दिल्ली वालों को घबराने की जरूरत नहीं है। आपकी सरकार आपके फेफड़ों से ज्यादा आपके ‘मोराल’ की चिंता कर रही है। अगर 1000 पार कर जाए और सरकार उसे रिज एरिया या हरे-भरे बागों में लगे मॉनिटर्स के जरिए 400 दिखाए, तो इसे ‘डेटा मैनीपुलेशन’ कहना देशद्रोह जैसा है। यह तो एक प्रबंधकीय कौशल है, ताकि जनता पैनिक न करे। अगर सांस लेने में तकलीफ हो रही है, तो इसे ‘स्ट्रगल’ नहीं, ‘राष्ट्रहित में किया गया बलिदान’ समझिए।
क्या फर्क पड़ता है अगर प्रदूषण से साल भर में 24,000 मौतें हो जाती हैं? या अगर हमारे बुजुर्ग और बच्चे घर में कैद होकर रह गए हैं? आखिर हमने कुछ सोचकर ही तो इन सरकारों को चुना है। यदि हम अपनी और अपने बच्चों की सांसों का सौदा करके सत्ता के हाथ मजबूत नहीं कर सकते, तो हमारा ‘राष्ट्रवाद’ संदिग्ध है। गंगानगर जैसे छोटे शहरों का दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में आना कोई त्रासदी नहीं, बल्कि एक ‘उपलब्धि’ है। कम से कम वर्ल्ड मैप पर नाम तो आया! यह मोदी जी के हाथ मजबूत करने का ही परिणाम है कि आज छोटे शहर भी अंतरराष्ट्रीय चर्चा का केंद्र हैं।
अरावली को काटकर, नियमों को ताक पर रखकर और वैज्ञानिक सुझावों को कूड़ेदान में डालकर हम जिस ‘नए भारत’ का निर्माण कर रहे हैं, उसमें शुद्ध हवा की मांग करना विलासिता है। सरकारें अपना काम बखूबी कर रही हैं—वे नारे गढ़ रही हैं, आंकड़े मैनेज कर रही हैं और विज्ञापनों में प्रदूषण मुक्त भविष्य की तस्वीरें छाप रही हैं। अब यह जनता की जिम्मेदारी है कि वह अपनी आँखों की जलन को ‘आध्यात्मिक शांति’ समझे और मुख्यमंत्री के साथ सुर में सुर मिलाकर कहे: “प्रदूषण तुझे जाना ही होगा!”

